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Authors
सूर्यनाथ सिंह
लेखक
राज खन्ना
लेखक
हरिकृष्ण यादव
लेखक
अश्वीनी कुमार
लेखक
राज कमल
लेखक
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सपनों के आर-पार
फिल्मों का आकर्षण इतना व्यापक है कि शायद ही कोई ऐसा होगा जो उसके असर से अछूता रहा है। भारत में तो क्रिकेट अगर धर्म है तो फिल्म आराधना। फिल्मों ने लोगों पर ही नहीं, समाज पर भी गहरा असर डाला है। यह असर जीवन शैली, मान्यताओं, सामाजिक स्थितियों में दिखता भी है। दुनिया भर में फिल्में मनोरंजन का एक प्रभावशाली माध्यम तो खैर ही हैं। सौ साल के सफर में विज्ञान के इस मायावी चमत्कार ने लोगों की मानसिकता, उनकी वैचारिकता को इस हद तक प्रभावित किया है कि फिल्मों की उपयोगिता और व्यावहारिकता के साथ-साथ उसके औचित्य पर लगातार बहस छिड़ती रही है। यह अहम सवाल हमेशा उठा है कि फिल्मों की असल भूमिका क्या है? क्या मनोरंजन की खुराक परोसने के अलावा समाज को कोई नई दिशा देने की जिम्मेदारी फिल्मों को निभानी चाहिए? इस मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष में अलग-अलग दलीलें सामने आती रही हैं। पक्षधरों का तर्क है कि करोड़ों लोगों तक पैठ बनाने वाला यह माध्यम अपने सामाजिक दायित्व से कैसे बच सकता है? सवाक फिल्मों के शुरुआती दौर से पचास-साठ के दशक तक फिल्मों ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई भी। समाधान का रास्ता सुझाया लेकिन क्या इससे समाज में कोई बदलाव आ पाया? फिल्मों को दायित्व की बंदिशों से बांधने के विरोधियों का कहना है कि फिल्म आखिर सुधारक, प्रचारक या दिशा निर्देशक की भूमिका क्यों निभाएं? वह कलात्मक अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और फिल्मकार को अपना दृष्टिकोण सामने रखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, इस बात की परवाह किए बिना कि उसका असर क्या होगा? इस खेमे का सीधा तर्क है कि फिल्में समाज से ऊपर नहीं हो सकतीं, वह तो समाज का एक हिस्सा है। समाज में जो कुछ घटता है, उससे फिल्में अछूती कैसे रह सकती हैं? तर्क-वितर्क अपनी जगह है।
तथ्य यह है और इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि फिल्मों का कोई विकल्प नहीं है। फिल्मों को सराहा जाए या लताड़ा जाए लेकिन उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सौ साल पहले कुछ चलती-फिरती तस्वीरों के चमत्कार को कौतुकता की नजर से देखा गया था। आज वह चमत्कार दुनिया भर में लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। और उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। भारत में फिल्मों को अपनी जड़ें जमाने में कम मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा। संसाधनों की कमी उधार की तकनीक और दोयम दर्जे के उपकरणों के सहारे पिछली सदी में जो नींव पड़ी, उस पर कई फिल्मकारों की मेहनत, लगन और अंतरदृष्टि ने एक मजबूत इमारत खड़ी कर दी। आज स्थिति यह है कि भारतीय फिल्में स्तर, कलात्मकता और गुणवत्ता के स्तर पर दुनिया के किसी भी देश को बराबर की टक्कर देने की हैसियत में आ गई हैं। पिछले करीब पचास साल से हर साल फिल्मों की संख्या के मामले में भारत सबसे आगे है। हर साल पांच सौ करोड़ लोग फिल्में देखते हैं। इतनी दर्शक संख्या दुनिया के किसी देश में नहीं हैं। भारतीय फिल्मों का सालाना कारोबार सत्तर हजार करोड़ रुपए को पार कर चुका है। सभी विकसित देशों के अलावा पचास से अधिक विकासशील व तीसरी दुनिया के देशों में भारतीय फिल्मों का डंका बज रहा है। भाषा और देश की सीमाओं को फिल्मों ने तोड़ दिया है।
हिंदी फिल्मों का इतिहास सबसे पुराना है और भारतीय सिनेमा के विकास में उसने हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है। तकनीक, शैली और विस्तार के हर तरह के प्रयोग में अगुआ रही हिंदी फिल्मों ने प्रादेशिक भाषाओं की फिल्मों को एक मजबूत आधार दिया। इसी वजह से आज तमिल व तेलुगू फिल्में ज्यादा समृद्ध हो गई हैं। हिंदी फिल्मों के सूत्र पकड़ कर प्रादेशिक फिल्मों ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली। केरल और बंगाल में नव यथार्थवादी फिल्मों का दौर पनपा तो तमिल व तेलुगू फिल्मों ने विषय वस्तु और तकनीक के मामले में नई जमीन तैयार कर ली। जलवा फिर भी हिंदी फिल्मों का ज्यादा बना हुआ है तो अपनी व्यापक पहुंच और प्रादेशिक स्तर पर हुए नए प्रयोगों को आत्मसात कर लेने की वजह से। समय के साथ-साथ हिंदी फिल्मों का स्वरूप और दायरा बदलता रहा है। इसी विशेषता की वजह से हिंदी फिल्मों की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता लगातार बनी हुई है। हर दौर में हिंदी फिल्मों को दबावों और बाधाओं का सामना करना पड़ा है। उसके अस्तित्व के लिए चुनौतियां खड़ी होती रही हैं। इन तमाम विसंगतियों से जूझ कर हिंदी फिल्में अपना सफर जारी रखे हुए हैं। इस सफर में हिंदी फिल्मों ने कई पड़ाव तय किए हैं। कई कीर्तिमान कायम किए हैं। मनोरंजन की कई परिभाषाएं गढ़ी हैं। इस समृद्ध इतिहास को क्रमबद्ध कर एक किताब में समेट पाना संभव नहीं है। हिंदी फिल्मों में समय-समय पर बदली स्थितियों और उसके अंदाज की एक झलक देने की मैंने कोशिश की है। साथ ही बदलते दौर में अपनी अलग छाप छोडऩे वाले फिल्म निर्माण की विधा से जुड़े कुछ दिग्गजों को याद किया है। हिंदी फिल्मों की सर्र्वांगीण पड़ताल करने का दावा कतई नहीं है। इसके लिए कई ग्रंथों की जरूरत होगी। फिलहाल यह किताब हिंदी फिल्मों के इतिहास के विभिन्न पड़ावों की झलक है।
Author: Shrish Chandra Mishra
Category: Cenema
आजादी से पहले, आजादी के बाद
इतिहास लेखन अपने आप में एक रचनात्मक लेखन भी है। इतिहास लिखने का कोई प्रचलित ढांचा नहींं है। इसलिए कोई इसे उपन्यास की शक्ल में उतार देता है, जैसे यदुनाथ सरकार, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी आदि ने, तो कोई पुष्ट तथ्यों को क्रमवार प्रस्तुत करने में विश्वास करता है। इतिहास लेखन का एक ढंग पत्रकारीय दृष्टि से भी होता है। कुलदीप नैयर आदि कुछ पत्रकारों ने इसी दृष्टि से इतिहास को लिखने का प्रयास किया। मगर साहित्य, पत्रकारिता और इतिहास लेखन का मिलाजुला एक रूप भी हो सकता है, यह राज खन्ना की किताब ‘आजादी के कंदीलें’ को देख कर पता चलता है।
राज खन्ना मूलत: पत्रकार हैं, इसलिए उनकी नजर में इतिहास के झगड़े ज्यादा चुभते हैं और वे उनकी तहों तक जाकर उन्हें खोलने-कुरेदने का प्रयास करते हैं। ये लेख खोलते तो इतिहास की परतों को हैं, सुलझाते तो इतिहास के विवादों को हैं, पर इनमें रस ललित निबंधों का है। इस किताब में आजादी के इर्द-गिर्द की घटनाएं, द्वंद्व-अंतर्द्वंद्व और वैचारिक आलोड़न-विलोड़न हैं। जैसे पहला ही निबंध है, जो सवाल उठाता है कि आजादी का दिन यानी सत्ता हस्तांतरण का दिन पंद्रह अगस्त ही क्यों तय किया गया। उसका भी एक स्वतंत्र इतिहास है। उस तारीख से भी जुड़े कुछ विवाद हैं। उन सारे विवादों को राज खन्ना पंद्रह अगस्त से संबंधित लेखों में उभारते हैं। ऐसे अनेक विवाद वे उठाते हैं और उनके रेशे-रेशे को खोलते जाते हैं। आजादी से जुड़े सवालों के अलावा इस किताब में उसके बाद की स्थितियों, जैसे कश्मीर समस्या, रजवाड़ों का विलय, पाकिस्तान का बंटवारा और विवाद आदि विषयों को भी उठाया गया है।
इस किताब में गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष चंद्र बोस, नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, लोहिया आदि नेताओं से जुड़े कुछ भ्रमों के निवारण का भी प्रयास है, तो नेहरू के बाद की राजनीति में सक्रिय रहे नेताओं जैसे इंदिरा गांधी, चंद्रशेखर आदि को केंद्र में रख कर भी भारतीय राजनीति और लोकतंत्र से जुड़े अनेक मुद्दों को हल करने का प्रयास किया गया है। इस तरह यह किताब आजादी से लेकर आपातकाल तक के ज्वलंत मुद्दों को समेटती है। इसमें राजनीति भी है, इतिहास भी और रचनात्मक साहित्य का छौंक भी। यह कई उन अछूते पहलुओं को भी उठाती है, जो इतिहास की किताबों में छूट गए हैं
Author: Raj Khanna
Category: History
कविता में मनुष्य
आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता दो ऐसे ध्रुव हैं, जिनके बीच दुनिया भर में भारी उथल-पुथल मची। कई विचारधाराएं पनपीं, अनेक आंदोलन उभरे, दुनिया ने दो महायुद्ध झेले, जिसमें लाखों लोगों ने अपने प्राण गंवाए, तो लाखों अपंग हुए। आधुनिकता का जन्म मशीनी क्रांति की कोख से हुआ था। तब कहा गया कि इससे दुनिया में मानवतावाद, बुद्धिवाद, व्यक्तिवाद, पंथनिरपेक्ष नैतिकता और प्रगतिवाद को बल मिलेगा। मगर यह उम्मीद कभी पूरी नहीं हुई। मशीनी क्रांति ने महज पूंजीवाद को मजबूत किया। विज्ञान को बढ़ावा मिलने से तर्क करने की प्रवृत्ति जरूर विकसित हुई, जिसके चलते नवजागरण आया। धार्मिक और राजशाही सत्ता को चुनौतियां दी गईं, पुराने मूल्यों को तर्कों पर परख कर उन्हें निरस्त किया जाने लगा। इस तरह व्यक्ति सत्ता स्थापित होने की उम्मीद जगी थी। सामंतवाद, पुरोहितवाद और राजशाही खत्म होने के बाद लोकतंत्र आया जरूर, मगर राजनीतिक सत्ता ने पूंजीवाद से गलबहियां करनी शुरू कर दी। इस तरह दुनिया भर में यही दोनों वास्तविक सत्ता बन गए। मनुष्य के जीवन की दशा और दिशा यही दोनों निर्धारित करने लगे। वास्तविकता यह है कि मानव स्थितियां राजशाही और सामंती व्यवस्था से भी बदतर होती गईं। पूंजीवाद ने मानव श्रम का मनमाना शोषण शुरू किया, तो राजनीति ने अपने वोट के मकसद से उसे धर्म, जाति, क्षेत्र, समुदाय, लिंग, रंग आदि के आधार पर विभाजित करना।
इन बदलती स्थितियों के मद्देनजर सामाजिक-राजनीतिक सैद्धांतिकियां गढ़ कर आंदोलन खड़े करने के प्रयास हुए। पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध मार्क्स ने सामाजिक संघर्ष के सिद्धांत गढ़े और मजदूर-किसान आंदोलनों की जरूरत रेखांकित की। इससे प्रगतिवादी आंदोलनों को बल मिला और साहित्य तथा कलाओं में इसे अभिव्यक्ति मिलनी शुरू हो गई। मार्क्सवादी सिद्धांतों ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। देर-सवेर हर साहित्य और कला में इसने अपनी धमक दर्ज कराई। भारत में भी 1936 के बाद प्रगतिवादी सिद्धांतों का बोलबाला शुरू हुआ। हिंदी में छायावादी प्रवृत्तियों को खारिज कर प्रगतिवादी मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया गया, तो बांग्ला में रवींद्रनाथ की धारा को खारिज कर। प्रगतिवादी सिद्धांतों ने स्थापित किया कि बिना सामाजिक सरोकार के रचना का कोई अर्थ नहीं होता। उसमें मनुष्य की जीवन-स्थितियों से जुड़े दुख-दर्द अहम वस्तु हैं। जहां मनुष्य अपनी भौतिक जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहा हो, बेपनाह शोषण झेल रहा हो, वहां कविता का कोमलकांत पदावली में रचा जाना एक तरह की अमानवीयता है। साहित्य और कलाओं का मकसद आखिरकार मनुष्य को रूपायित, चित्रित करना ही है, इसलिए वे उसकी वास्तविक जीवन-स्थितियों की तरफ से आंख मूंद कर अगर एक आदर्श की कल्पना में डूबी रहेंगी, तो उनका कोई अर्थ नहीं। साहित्य और कलाओं का मकसद मनुष्य के जीवन से जुड़े यथार्थ को अभिव्यक्त करना होना चाहिए।
मगर यह सिद्धांत भी लंबे समय तक टिक नहीं पाया और न पूरी तरह स्वाकार्य हो पाया। इसे यह कह कर चुनौती दी गई कि मनुष्य की चिंता सिर्फ पेट की भूख मिटाने या बुनियादी जरूरतें पूरी करने की नहीं है। उसके मन में सौंदर्य की भूख भी पैदा होती है, दार्शनिक प्रश्नाकुलता भी उठती है। मनुष्य के इस पक्ष को नजरअंदाज करना उचित नहीं कहा जा सकता। प्रगतिवाद केवल मनुष्य के बाहरी संघर्षों को महत्व देता है, उसके सामाजिक संघर्ष पर बल देता है, इसलिए उसमें संपूर्ण मनुष्य की छवि नहीं उभर पाती। वह सिर्फ मनुष्य का एकांगी पक्ष रूपायित कर पाता है। इसलिए इसके प्रतिरोध में अस्तित्ववादी विचारधारा का उदय हुआ। इसके सहारे दुनिया भर के रचनाकारों-कलाकारों ने प्रयोगवाद का रास्ता अख्तियार किया और साहित्य और कलाओं को प्रगतिवाद की खुरदुरी जमीन से उठा कर कोमल और सुंदर धरातल पर स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रक्रिया में काव्यभाषा और शिल्प के स्तर पर खूब प्रयोग हुए। यहीं से नई कविता की शुरुआत मानी गई। नई कविता की प्रवृत्तियां हिंदी और बांग्ला में समान रूप से उभरीं। उनमें बिंब और प्रतीकों के माध्यम से तत्कालीन मनुष्य की जीवन-स्थितियों को प्रकट करने के प्रयास हुए। उसमें पौराणिक, ऐतिहासिक मिथकों को भी नई सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के अनुसार ढाल कर मनुष्य के तत्कालीन स्वरूप को रूपायित किया जाने लगा।
मगर नई कविता की प्रवृत्तियों को भी जल्दी ही प्रश्नांकित किया जाने लगा। उसे भी मनुष्य को संपूर्ण रूप में व्यक्त कर पाने में अपर्याप्त ठहराया जाने लगा। इसलिए कि आजादी के बाद भारत में विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी स्थितियों से देश अभी उबर भी नहीं पाया था, लोकतंत्र और आजादी के सपने उसकी आंखों से दूर भी नहीं हुए थे कि राजनीति और पूंजीवाद के गठजोड़ से नई तरह की सामाजिक विसंगतियां उभरनी शुरू हो गईं। सन साठ के आते-आते इन विसंगतियों के विरोध में आवाजें तीखी होने लगीं और घोषित कर दिया गया कि प्रयोगवादी और नई कविता इन स्थितियों को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं है। दरअसल, प्रगतिवाद और अस्तित्ववाद, दोनों विचारधाराएं अपनी अतियों के कारण मनुष्य को पूरी तरह समझने में अक्षम साबित हुईं। एक का ध्यान सिर्फ मनुष्य के बाहरी पक्ष पर केंद्रित था, तो दूसरे का भीतरी। इस तरह नई कविता के बाद की कविता ने इन दोनों विचारधाराओं को छोड़ कर स्वतंत्र रास्ता अख्तियार किया। उसमें राजनीतिक चेतना प्रमुख थी। इस धारा को ही समकालीन कविता कहा गया। यह धारा बांग्ला और हिंदी दोनों भाषाओं की कविताओं में लगभग समान रूप से उभरी।
सन साठ के बाद की स्थितियां कुछ ऐसी थीं कि पूरी दुनिया में बहुत तेजी से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलाव देखे गए। उसमें कोई एक विचारधारा प्रमुख नहीं थी, अनेक विचारधाराएं सम्मिलित थीं। यह एक तरह से वादरहित धारा थी। इसका मकसद मुख्य रूप से मनुष्य की स्थितियों को रेखांकित करना और बेहतर बनाना था। गौर करें कि सन साठ के बाद पूंजीवाद और बाजार के विस्तार ने मनुष्य के हर पक्ष पर हमला कर दिया। बाजार ने उसकी जरूरतें पूरी करने के बजाय उसमें लालच पैदा कर औद्योगिक उत्पादन को खपाने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया था। उसने रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, पहनावा-खानपान, मनोरंजन के साधन, भाषा आदि सब कुछ को बदलना शुरू कर दिया। पूरी दुनिया में यह सिद्धांत विकसित हुआ कि कोई भी देश हथियारों के बल पर नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के बल पर महाशक्ति बन सकता है। विश्व-बाजार में किसी देश की कितनी पैठ है, उसी के आधार पर उसकी ताकत तय होती है। इस तरह उदारीकरण की नीति आई, पूरी दुनिया को विश्वग्राम घोषित कर व्यापारियों के लिए खोल दिया गया। श्रम कानूनों को काफी लचीला बना दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि मानव श्रम का मनमाना शोषण शुरू हो गया। फिर पूंजीवादी ताकतों ने मानव जीवन के तमाम क्षेत्रों को एकरैखिक बनाने का प्रयास शुरू कर दिया। भाषा का रूप बदला जाने लगा, ताकि व्यापार की एक भाषा विकसित की जा सके। इसके लिए संचार माध्यमों, मनोरंजन के साधनों आदि को प्रचार तंत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। उससे संस्कृति पर हमले तेज हुए। औद्योगिक समाज ने एक नई तरह की संस्कृति विकसित करने की कोशिश की, जिसमें सारी दुनिया एकरंग दिखने लगे। जाहिर है, इन प्रयासों से भारत की मूल संस्कृति विकृत होनी शुरू हो गई। इसकी सांस्कृतिक और भाषाई विविधता नष्ट-भ्रष्ट होने लगी। परंपरागत मूल्य ध्वस्त होने लगे। अब संपन्नता और किसी भी तरह शक्ति अर्जित करने की होड़ शुरू हो गई, जिससे नैतिकता के प्रश्न गाढ़े होने लगे।
साहित्य और कलाओं ने इन विसंगतियों और मनुष्य को औद्योगिक, नव-पूंजीवादी, राजनीतिक गठजोड़ से बदलने की कोशिशों के विरोध में आवाज उठानी शुरू कर दी। आधुनिकता के विरोध में नई चेतना विकसित होने लगी, जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद कहा गया। भारत में उत्तर-आधुनिकता की सुगबुगाहट सत्तर के दशक में शुरू हुई और फिर अस्सी का दशक आते-आते उसने आंदोलन का रूप ले लिया। इस चेतना ने महानगर केंद्रित साहित्य और कलाओं की तरफ से ध्यान हटा कर स्थानीय स्तर पर सक्रिय रचनात्मत्कता पर केंद्रित कर दिया। इसे जनपदीय चेतना का उभार भी कहा गया। बांग्ला में इसे ‘अधुनांतिक’ प्रवृत्ति कहा गया। उस दौर में ‘लघु’ को महत्त्व दिया गया। हाशिये पर पड़े ‘लघु मानव’ को केंद्र में लाने की कोशिशें तेज हुईं। इसी का नतीजा था कि हाशिये की स्त्री, दलित, आदिवासी आदि अनेक अस्मिताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी और फिर केंद्र में स्थापित रचनात्मकता को चुनौती देने लगीं। इसी दौर में छोटे शहरों-कस्बों से लघु पत्रिकाओं का आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें हाशिये की रचना-धारा को जगह मिलनी शुरू हुई।
इस तरह समकालीन कविता के भीतर से मनुष्य को समझने और उसे व्याख्यायित करने की जो व्यापक कोशिशें शुरू हुईं, वे साहित्य के किसी भी युग से ज्यादा महत्त्वपूर्ण थीं। गौर करें तो इतनी रचनात्मक सक्रियता शायद किसी समय में नहीं देखी गई, जितनी समकालीन साहित्य धारा में देखी गई। इसका प्रमुख कारण यही था कि साहित्य और कलाओं का केंद्रीकरण ध्वस्त हुआ, उनका विकेंद्रीकरण हुआ और तमाम अस्मिताओं को उसमें जगह मिलनी शुरू हो गई। इस तरह विषय-वस्तु और रचनात्मक शैली के जितने विविध आयाम इस दौर में देखने को मिलते हैं, उतने किसी दौर में दिखाई नहीं देते।
हिंदी और बांग्ला दोनों भाषाओं में लिखी गई इस दौर की कविताओं में मनुष्य की स्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन अब तक व्यवस्थित रूप में कहीं नहीं हुआ है। दोनों भाषाएं चूंकि पड़ोसी हैं और सांस्कृतिक रूप से भी एक-दूसरे की बहुत निकट हैं, इसलिए इनकी समकालीन कविता में मानव की परिकल्पना विषय पर काम करना निस्संदेह अलग और नया होता। मेरे जाने, अब तक इस विषय पर काम नहीं हुआ है।
इस पुस्तक में आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के बीच मनुष्य के बदलते स्वरूप और कविता में उसकी छवियों को देखने-समझने, प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। पहले अध्याय में आधुनिकता और समकालीनता का अर्थ और दोनों की स्थितियों का विश्लेषण है। किस तरह समकालीनता आधुनिकता से अलग होती है और उसके पीछे क्या सामाजिक-राजनीतिक स्थितियां थीं, उसका अध्ययन किया गया है। उन स्थितियों का हिंदी और बांग्ला कविता पर क्या असर पड़ा, दोनों भाषा-भूमियों में इसके प्रभाव में समानता और क्या असमानता है, उसे समझने का प्रयास है। दूसरे अध्याय में समकालीन स्थितियों में मानवीय चेतना के विस्तार और तदनुरूप कविता में आए बदलावों को रेखांकित किया गया है। समकालीनता का उदय हिंदी और बांग्ला दोनों में सन साठ के बाद होता है। वह समय नेहरू युग से मोहभंग का था। जिस लोकतंत्र और आजादी के बाद की राजनीतिक स्थितियों का सपना लोगों के मन में जगा था, वह टूट गया था। इस तरह समकालीन कविता एक तरह से मोहभंग की कविता है। इस कालखंड में बहुत तेजी से सामाजिक-राजनीतिक बदलाव होने शुरू हुए थे, जिसमें सबसे चिंताजनक बात थी राजनीतिक सत्ता और पूंजीवाद का गठजोड़। इसके चलते न केवल व्यक्ति स्वातंत्र्य बाधित हुआ, बल्कि शोषण का एक नया सिलसिला शुरू हो गया। हिंदी और बांग्ला की समकालीन कविता मनुष्य पर पड़ते इन प्रभावों को थोड़ा तल्ख तेवर के साथ पेश करती है। हालांकि इस दौर में विचारधारात्मक द्वंद्व भी उभरे और उसमें प्रगतिवादी तथा अस्तित्ववादी धारा के बीच मनुष्य को संपूर्ण रूप में चित्रित करने को लेकर मतभेद भी दिखाई पड़ते हैं। इसके चलते कविता की भाषा और शिल्प पर असर साफ दिखाई देता है। इस अध्याय में इन्हीं सारे पक्षों पर विचार किया गया है।
तीसरे अध्याय में समकालीन कविता में मिथकीय चरित्रों के रूपांतरण और पुराकथाओं के सर्जनात्मक उपयोग को लेकर उसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। कैसे छायावादी दौर से चल कर समकालीन कविता तक मिथकीय चरित्रों का स्वरूप बदला और फिर समकालीन स्थितियों के अनुसार कविता में उनका सर्जनात्मक उपयोग हुआ, उसके विभिन्न कवियों में ढेर उदाहरण मिलते हैं। उन सबकी चर्चा करते हुए विशेषकर अज्ञेय और विष्णु डे के संदर्भ में इस पक्ष पर विस्तार से चर्चा की गई है। पुराकथाओं के सर्जनात्मक उपयोग में किस प्रकार काव्यभाषा बदलती गई, उसका भी इस अध्याय में विश्लेषण किया गया है।
चौथा और अंतिम अध्याय उत्तर-आधुनिक कविता के मिजाज को लेकर है। आधुनिकता, आधुनिकतावाद और आधुनिकीकरण ने समाज, राजनीति और विश्व-बाजार में जिस तरह तोड़-फोड़ की और मनुष्य को एक दिशाहारा स्थिति में ला खड़ा किया, उसमें भाषा, संस्कृति, बल्कि मनुष्य के समग्र अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया। इस दौर में आधुनिकता के विरोध में स्थानीयता या जनपदीय चेतना का उभार हुआ और लघु मानव की कल्पना को साकार रूप देने के प्रयास हुए। उसमें अनुभव की प्रामाणिकता को कविता का प्रमुख गुण माना गया। काव्यभाषा में स्थानीयता का प्रवेश बढ़ा, वर्णनात्मकता पर जोर बढ़ा। इस अध्याय में उत्तर-आधुनिक चेतना का कविता के विभिन्न पक्षों पर पड़े सभी प्रकार के प्रभावों और उसमें मनुष्य की नई छवि को देखने-परखने का प्रयास किया गया है।
Author: Surya Nath Singh
Category: Poem
किस किस को रोइए
स्मृतियां जीवन को ऊर्जा देती हैं। रस देती हैं। फिर जब वे रचनात्मक आयाम गहती हैं तो उनका अहसास पुलकित कर देता है। हरिकृष्ण यादव में विगत की स्मृतियां घनीभूत हैं। वे उनके सहारे वर्तमान की विसंगतियों को जांचने-परखने, उनके समाधान तलाशने का प्रयास करते हैं। वर्तमान की स्थितियों को पकड़ कर वे अतीत की स्मृतियों में खो जाते हैं। इस तरह वर्तमान से अतीत की ओर और अतीत से वर्तमान में उनकी आवाजाही लगी रहती है। हरिकृष्ण यादव की संवेदना गंवई है। शहरी जीवन की ऊब में वह अतीतोन्मुखी होकर भी एक बेहतर स्थिति की उम्मीद से उमग उठती है। वे शहर में रहते हुए भी गांव को जी रहे होते हैं। जहां भी उन्हें मौका मिलता है, दिल्ली में अपने गांव-गिरांव के लोगों की तलाश कर उनके साथ आत्मीय रिश्ते बना लेते हैं। गांव की बोली उनके कानों में पड़ते ही वे उधर खिंचे चले जाते हैं। शहर में रहते हुए गांव लगातार उनमें धड़कता रहता है। पलाश वन और झरबेरी के जंगलों में जीवन तलाशते रहते हैं। यहां यमुना की दुर्दशा देखते हैं तो गांव की गोमती में तैर आते हैं। गोमती को सड़ांध में धंसते देखते हैं, तो विगत की समृतियों का हवाला देते हुए व्यवस्था को धिक्कारने से भी नहीं चूकते।
हरिकृष्ण यादव की ये टिप्पणियां किसी घटना, किसी सूचना की डोर पकड़ कर शुरू होती हैं, पर फिर वे स्मृतियों का वितान रचते हुए कथा-रस से सराबोर हो उठती हैं। ये टिप्पणियां अलबत्ता पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखी गईं, उन्हीं में छपीं भी, पर ये किसी घटना या स्थिति पर महज अखबारी प्रतिक्रियाएं नहीं हैं। इनमें कहानियां भी हैं, संस्मरण भी हैं, अपने आसपास के लोगों के रेखाचित्र भी हैं। इस तरह इनमें भरपूर लालित्य है।
हरिकृष्ण यादव एक अखबार में मुलाजिम हैं, उन्हें प्रभाष जोशी, राम बहादुर राय और हरिशंकर व्यास जैसे प्रतिष्ठित संपादकों का सानिध्य मिला है। अखबार में काम करते हुए वे लगातार सूचनाओं, राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों से पुनर्नव होते रहे हैं, इसलिए भी उन्हें विसंगतियों पर टिप्पणी करने की बेकली सदा बनी रही है। मगर वे किसी रिपोर्टर की तरह महज सूचनाएं परोस कर या फिर संपादकीय टिप्पणियों की तरह अपने विचार व्यक्त करके अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं मान लेते। वे इन दोनों से अलग रास्ता अख्तियार करते हैं। सरस, संवेदना युक्त टिप्पणियों के जरिए वे किसी समस्या को उकेरने, उभारने, उसके समाधान तलाशने का प्रयास करते हैं।
उनकी समृति में गांव के खेल हैं, तो जंगली पौधों की लंबी सूची भी है। अमोला, टिकोरा जैसे लुप्त हो रहे शब्दों को वे सहेज कर रखते हैं, तो जलेबी का पेड़ भी वही तलाश कर ले आते हैं। उन्हें गर्व है कि हिंदी के प्रतिष्ठित कवि त्रिलोचन शास्त्री उनके जिले के थे और त्रिलोचनजी के एक बेटे हरिकृष्ण यादव के साथ काम करते थे। इसी तरह उन्हें जनसत्ता में काम करने पर भी अभिमान है। मगर उनकी चिंता का केंद्र बार-बार लुप्त होते कुएं-पोखर, छीजती नदियां बनती हैं। उन्हें गर्व है कि बचपन में उन्होंने तैर कर गोमती को आर-पार किया है। यमुना की दुर्दशा पर इस पुस्तक में एक लंबा लेख है, जिसमें तमाम आंकड़ों के जरिए एक गहन अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। वे बार-बार यमुना को देख कर गोमती में पहुंच जाते हैं। जब वे नर्मदा को देखते हैं, तब भी उन्हें गोमती का स्मरण हो आता है।
इस तरह हरिकृष्ण यादव की स्मृतियों के झरोखे से अवध की संस्कृति की सुंदर झलक दिखाई देती है। उसमें खेती-किसानी है, तो मेले-ठेले, मिथकीय आख्यान और वहां की बोली-बानी के अविस्मरणीय दृश्य हैं। इन टिप्पणियों में शहर और गांव का सीधा द्वंद्व तो नहीं, पर स्थितियों का टकराव जरूर है। गांवों से आकर शहरों में बस गए लोगों की दुश्वारियां हैं, पर उनकी गंवई संवेदना अक्षुण्ण है। हरिकृष्ण यादव की खूबी है कि वे नकारात्मक स्थितियों को भी स्मृतियों की डोर में बांधे ले चल कर एक संभावना, एक बेहतरी की एक उम्मीद में तब्दील कर देते हैं।
इन टिप्पणियों की खूबी यह है कि ये कोई बड़ा साहित्यिक विमर्श पैदा करने के मकसद से नहीं लिखी गई हैं। इनकी भाषा अत्यंत सरल, अनालंकारिक और सुबोध है। ये निश्चित रूप से हरिकृष्ण यादव के निश्छल हृदय का पता देती हैं।
Author: Hari Krishna Yadav
Category: Social
घूमते फिरते
घुमक्कड़ी का आनंद जितना अद्भुत होता है, उसके अनुभवों को उतारना उससे तनिक कम नहीं। दरअसल, यात्राएं हमारे चेतन मन में बजती रहती हैं। उदबुद करती रहती हैं, हमारे अनुभवों के संग बह निकलने को। इसीलिए हर बड़े रचनाकार ने यात्राओं के अपने अनुभवों को अपने ढंग से अपने माध्यम में पिरोने का प्रयास किया है। अगर वह फोटोग्राफर है, तो कैमरे के माध्यम से, चित्रकार है, तो रंगों और रेखाओं के माध्यम से, पत्रकारों ने रिपोर्ताज के रूप में, साहित्यकारों ने संस्मरण के रूप में। हालांकि यात्रा के आध्यात्मिक अनुभव भी हैं और वे वहां भी बहुतायत बिखरे पड़े हैं। मगर यात्रा-संस्मरण साहित्य की समृद्ध विधा के रूप में ही प्रमुखता से स्थापित है।
आरपी यादव पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े रहे हैं। पत्रकारों के संगठन की गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहे हैं। उसी सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश की अनेक यात्राएं भी की। यात्राएं आमतौर पर दो तरह की होती हैं- एक, किसी काम के सिलसिले में और दो, निहायत यायावरी के लिए। मगर काम के सिलसिले में की गई यात्राएं भी व्यक्ति के मन पर प्रभाव तो छोड़ती ही हैं। अगर व्यक्ति संवेदनशील हुआ, रचनात्मक हुआ तो काम के सिलसिले में की गई यात्राओं में भी उसकी यायावरी फूट ही पड़ती है। आरपी यादव की यात्राएं कुछ उसी तरह की हैं। वे बेशक अनेक जगहों पर किसी निमित्त गए, पर उनके घुमक्कड़ मन ने उन्हें वहां थिर नहीं बैठने दिया। गए और काम करके लौट आए जैसे बंधन में नहीं बंधने दिया। वे जहां भी गए, वहां के आसपास की यथासंभव अनेक जगहों को छान आए।
इस किताब में संकलित यात्रा-संस्मरणों का स्वरूप बहुत कुछ रिपोर्ताज की तरह का है। रिपोर्ताज, यात्रा संस्मरण से इस मायने में अलग होते हैं कि उनमें सूचनाएं अधिक होती हैं, भावनाएं कम। तथ्यों की बारीक बुनावट होती है। इस किताब में लेखक ने देश के विभन्न ऐतिहासिक, पौराणिक स्थलों और यूरोप- फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड की यात्राओं के अनुभव और उन जगहों से जुड़े तथ्यों का अद्भुत विश्लेषण है। इनमें एक पर्यटक गाइड की तरह जगहों की भौगोलिक और ऐतिहासिक स्थितियों का विश्लेषण है, तो उनसे जुड़ी तमाम किंवदंतियों, कालक्रम में आए बदलावों का बखान भी। इन लेखों को पढ़ते हुए संबंधित जगहों तक पहुंचने से जुड़ी तमाम जानकारियां उपलब्ध होती हैं। उन स्थलों के इतिहास में उतरते जाते हैं। जब आरपी यादव किसी किले, किसी मंदिर, किसी तालाब के बारे में बात करते हैं, तो उसके मूल तक जाते हैं। उसे किसने कब बनवाया, उसके पीछे उसका क्या मकसद था और वह मकसद बदलते-बदलते अब क्या हो गया है। कालक्रम में उस स्थल से कैसी-कैसी किंवदंतियां जुड़ती गईं। फिर उसके इतिहास के ब्योरे पेश करते हैं। कब किस राजा ने उसे बनवाया और फिर उसके मालिकाना हक किस तरह बदलते गए और इस वक्त तक पहुंचते-पहुंचते उसमें क्या-क्या बदलाव आ गए।
मसलन, जब वे राजस्थान की यात्रा पर निकलते हैं और विभिन्न किलों के बारे में जानकारी देते हैं, तो नाहरगढ़ किले के बारे में बताते हुए वे कहते हैं- “एक कहानी नाहरगढ़ से भी जुड़ी है। कहा जाता है कि यह सुदर्शनगढ़ नाम से बन रहा था, पर किसी प्रेतबाधा के चलते इसका निर्माण संभव नहीं हो पाया। कहावत है कि नाहर सिंह भोमिया की आत्मा इस निर्माण में बाधक थी। अतः उसके नाम से एक मंदिर बनाया गया और किले का नाम नाहर सिंह रख दिया गया। पहाड़ के नीचे वृंदावन घाटी में गोबिंद देव जी परिसर है। कछवाहा राजवंश भगवान कृष्ण के परम भक्त थे। इसकी मिसाल यहीं नहीं, मथुरा में भी झलकती है। किला सन् 1857 के गदर में अंग्रजों की शरणस्थली बना था। प्रसिद्ध किला यूनेस्को की विश्व विरासत में शुमार है।”
ऐसे अनेक ब्योरे हर लेख में मिलते हैं। जिन जगहों के बारे में बहुत सारे लोगों को सामान्य जानकारी है या बिल्कुल नहीं है, उन्हें इन लेखों के जरिए वहां पहुंचने के रास्ते, वाहन पर आने वाले खर्च, ठहरने की जगहों के बारे में ब्योरे और फिर उन जगहों के इतिहास की विस्तृत जानकारी मिल जाती है। इस तरह ये लेख रिपोर्ताज के साथ-साथ पर्यटन पुस्तिका का भी काम करते हैं। इन्हें पढ़ते-पढ़ते पाठक के मन में उन जगहों को देखने की इच्छा जाग ही उठती है। ये लेख आपको घुमक्कड़ी के लिए उकसाते हैं। ढेर सारे सूक्ष्म ब्योरों और छिपे हुए तथ्यों को प्रकाश में लाती हैं। जैसे दिल्ली में यमुना के किनारे राजनेताओं की समाधियों के बारे में वे जिस तरह दिल्ली का इतिहास पेश करते हैं, उससे बहुत सारी नई जानकारियां मिलती हैं।
“कभी शहरों का शहर दिल्ली का एक शहर शाहजहानाबाद भी था। यमुना के किनारे बसा शाहजहानाबाद चारदीवारी से घिरा था। जिसमें चौदह गेट थे, जिसके चार गेट नदी की तरफ खुलते थे, हर गेट के सामने घाट था। शहर के दक्षिणी कोने में राजघाट था तो उत्तरी कोने में निगमबोध घाट, बीच में आमजन का घाट खैराती था तो मुसाफिरी घाट कलकत्ता दूसरी ओर था। नदी की दिशा बदली तो घाट खादर बन गया। 1936 में ब्रिटिश सरकार के दिल्ली सुधार ट्रस्ट ने दरियागंज में नया दरियागंज बसाया तो खादर किसानों को पट्टे पर दे दिया। यहां दूधियों की डेरियां खुली तो किसानी-खेती शुरू हो गई। 31 जनवरी, 1948 को यहीं महात्मा गांधी का अंतिम संस्कार हुआ तो बेघाट राजघाट निखर आया।”
ऐसे भूगोल और इतिहास के अनेक पन्ने इन लोखों में पिरोए हुए हैं। केवल भारत के नहीं यूरोप की तमाम महत्त्वपूर्ण जगहों और चौक-चौराहों, पुलों-नदियों का इतिहास इनमें बिखरा हुआ है। इन्हें पढ़ते हुए हम खुद एक पर्यटक बन जाते हैं और वे सारी छवियां हमारे मन में उतरती चली जाती हैं। निस्संदेह यह किताब एक नए अंदाज में घुमक्कड़ी का आनंद देगी।